Kabir An Indian Reformer



गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥

व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में लगे।


गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥

व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |


गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

व्याख्या: गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।


कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥


व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।


गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥

व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।


गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥

व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया।


जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥

व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।


गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥

व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |


गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥

व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु - सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु - स्वामी पास ही हैं।


गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥

व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु - मूरति की ओर ही देखते रहो।


गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥

व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।


ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥

व्याख्या: ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।


सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा जाय॥१३॥

व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।


पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥

व्याख्या: ‍बड़े - बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।


कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥

व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।


सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥

व्याख्या: अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।


तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ दीजै पीठ॥१७॥

व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।


अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥

व्याख्या: मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।


करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥

व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।


साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥

व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।


राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥

व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी - देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|


सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥

व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |


सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥

व्याख्या: सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|


सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥

व्याख्या: सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|


मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥

व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|


जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥

व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये| सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|


जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥

व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|


डूबा औधर तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥

व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो|


केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥

व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|


सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥

व्याख्या: संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ|


यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥

व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|


जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥

व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|


जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥

व्याख्या: विवेकी गुरु से जान - बुझ - समझकर परमार्थ - पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|

43 comments:

  1. जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
    मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
    कबीर दास जी के दोहे
    बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
    जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
    अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है.

    पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
    अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.

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  2. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
    सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
    अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे.

    तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
    कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !

    धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
    माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
    अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !

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  3. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
    कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
    अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो.

    जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
    मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
    अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का.

    दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
    अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
    अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.

    जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
    मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
    अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.

    बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
    हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
    अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है.

    अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
    अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
    अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है.

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  4. निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
    बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
    अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है.

    दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
    तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
    अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
    लगता.

    कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
    ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.
    अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

    हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
    आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

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    कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन. कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन.
    अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया. कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है.

    कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई. बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई.
    अर्थ :कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

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  5. जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई. जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई.
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है. पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है.

    कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस. ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस.

    अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है. मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले.

    पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात. एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात.
    अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.

    हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास. सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास.
    अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं. सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है. —

    जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं। जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
    अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा. जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा.

    झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद. खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद.
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है.

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  6. ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस. भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस.
    अर्थ : कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता. —

    संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
    अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता. चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता.

    कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ. जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ.
    अर्थ :कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है.

    तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई. सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ.
    अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं.

    कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय. सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय.
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए. सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.

    माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर. आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर .
    अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन. शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं.
    मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई. पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई.
    अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा.
    दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
    जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
    अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान् को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दुःख हो ही क्यों !

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  7. साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
    मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
    अर्थ : कबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।

    काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
    पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥
    अर्थ : कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे !!

    लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट ।
    पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट ॥
    अर्थ : कबीर दस जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है , अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान् की पूजा क्यों नहीं की ।

    माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
    माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख ॥
    अर्थ : माँगना मरने के बराबर है ,इसलिए किसी से भीख मत मांगो . सतगुरु कहते हैं कि मांगने से मर जाना बेहतर है , अर्थात पुरुषार्थ से स्वयं चीजों को प्राप्त करो , उसे किसी से मांगो मत।


    मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
    कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
    साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
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    सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
    सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
    कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
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  8. साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
    धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
    कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
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    जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
    जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
    संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
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    दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
    सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
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    जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
    यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
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    कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
    साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।

    चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए
    वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
    अर्थात चिंता ऐसी डाकिनी है, जो कलेजे को भी काट कर खा जाती है। इसका इलाज वैद्य नहीं कर सकता। वह कितनी दवा लगाएगा। वे कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
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    आगि जो लगी समुद्र में, धुआं न प्रगट होए।
    की जाने जो जरि मुवा, जाकी लाई होय।।
    फिर इससे बचने का उपाय क्या है? मन को चिंता रहित कैसे किया जाए? कबीर कहते हैं, सुमिरन करो यानी ईश्वर के बारे में सोचो और अपने बारे में सोचना छोड़ दो। या खुद नहीं कर सकते तो उसे गुरु के जिम्मे छोड़ दो। तुम्हारे हित-अहित की चिंता गुरु कर लेंगे। तुम बस चिंता मुक्त हो कर ईश्वर का स्मरण करो। और जब तुम ऐसा करोगे, तो तुरत महसूस करोगे कि सारे कष्ट दूर हो गए हैं।
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    लेकिन कबीर प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी बनने का उपदेश देते हैं। कहते हैं :
    करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।
    जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
    अर्थात मनुष्य को अपने आप ही मुक्ति के रास्ते पर चलना चाहिए। कर्म कांड और पुरोहितों के चक्कर में न पड़ो। तुम्हारे मन के आंगन में ही आनंद की नदी बह रही है, तुम प्यास से क्यों मर रहे हो? इसलिए कि कोई पंडित आ कर बताए कि यहां से जल पी कर प्यास बुझा लो। इसकी जरूरत नहीं है। तुम कोशिश करो तो खुद ही इस नदी को पहचान लोगे।
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    कबीर एक उपाय और बताते हैं, कहते हैं कि सुखी और स्वस्थ रहना है तो अतियों से बचो। किसी चीज की अधिकता ठीक नहीं होती। इसीलिए कहते हैं :
    अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
    अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

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  9. इस चंचल मन के स्वभाव की विवेचना करते हुए कबीर कहते हैं, यह मन लोभी और मूर्ख हैै। यह तो अपना ही हित-अहित नहीं समझ पाता। इसलिए इस मन को विचार रूपी अंकुश से वश में रखो, ताकि यह विष की बेल में लिपट जाने के बदले अमृत फल को खाना सीखे।
    कबिरा यह मन लालची, समझै नहीं गंवार।
    भजन करन को आलसी, खाने को तैयार।।
    कबिरा मन ही गयंद है, आंकुष दे दे राखु ।
    विष की बेली परिहरी, अमरित का फल चाखु ।।
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    मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
    कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।।
    साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।
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    सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन।
    सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान।।
    कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।
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    साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
    धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
    कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
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    जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
    जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।
    संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
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    दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
    सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
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    जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
    यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
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    कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
    साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।

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    मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।
    जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।।
    संत कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों की देखादेखी कुछ लोग सम्मान पाने के लिये परमात्मा की भक्ति करने लगते हैं पर जब वह नहीं मिलता वह मूर्खों की तरह इस संसार में ही दोष निकालने लगते हैं।
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    कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय।
    तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय॥
    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
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    दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि।
    तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि॥
    कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
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    कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
    आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
    एक तरफ हिंदू हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते.
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    कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लियो बनाए।
    ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदा॥

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  10. गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
    बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥

    व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।


    गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
    कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥

    व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |


    गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
    वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

    व्याख्या: गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।


    कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
    जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥


    व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।


    गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
    अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥

    व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।


    गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
    तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥

    व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया।

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  11. जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
    एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥

    व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।


    गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
    कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥

    व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |


    गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
    प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥

    व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु - सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु - स्वामी पास ही हैं।


    गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
    आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥

    व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु - मूरति की ओर ही देखते रहो।


    गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
    उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥

    व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।


    ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
    गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥

    व्याख्या: ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।


    सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
    सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥

    व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।


    पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
    ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥

    व्याख्या: बड़े - बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।


    कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
    तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥

    व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।


    सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
    कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥

    व्याख्या: अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।


    तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
    ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥

    व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।


    अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
    अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥

    व्याख्या: मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।


    करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
    बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥

    व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।


    साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
    जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥

    व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।

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  12. राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
    कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥

    व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी - देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|


    सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
    तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥

    व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |


    सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
    धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥

    व्याख्या: सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|


    सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
    भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥

    व्याख्या: सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|


    मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
    अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥

    व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|


    जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
    कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥

    व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|


    जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
    तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥

    व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|


    डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
    लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥

    व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में ऐ मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो|


    केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
    बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥

    व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|


    सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
    मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥

    व्याख्या: ऐ संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ|


    यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
    करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥

    व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|


    जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
    अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥

    व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|


    जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
    अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥

    व्याख्या: विवेकी गुरु से जान - बुझ - समझकर परमार्थ - पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|



    2

    कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय |
    अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय ||


    वो दिन बहुत अच्छा है जिस दिन सन्त मिले | सन्तो से दिल खोलकर मिलो , मन के दोष दूर होंगे |


    दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार |
    आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार ||


    सन्तो के दरशन दिन में बार - बार करो | यहे आश्विन महीने की वृष्टि के समान बहुत उपकारी है |


    दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करू इकबार |
    कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ||


    सन्तो के दरशन दिन में दो बार ना कर सके तो एक बार ही कर ले | सन्तो के दरशन से जीव संसार - सागर से पार उतर जाता है |

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  13. दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय |
    कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय ||


    सन्त दर्शन दूसरे दिन ना कर सके तो तीसरे दिन करे | सन्तो के दर्शन से जीव मोक्ष व मुक्तिरुपी महान फल पता है |


    बार - बार नहिं करि सकै, पाख - पाख करि लेय |
    कहैं कबीर सों भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ||


    यदि सन्तो के दर्शन साप्ताहिक न कर सके, तो पन्द्रह दिन में कर लिया करे | कबीर जी कहते है ऐसे भक्त भी अपना जन्म सफल बना सकते हैं |


    मास - मास नहिं करि सकै, छठे मास अलबत |
    थामें ढ़ील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत ||


    यदि सन्तो के दर्शन महीने - महीने न कर सके, तो छठे महीने में अवश्य करे | अविनाशी वोधदाता गुरु कबीर कहते हैं कि इसमें शिथिलता मत करो |


    बरस - बरस नहिं करि सकैं, ताको लगे दोष |
    कहैं कबीर वा जीव सों, कबहु न पावै मोष ||


    यदि सन्तो के दर्शन बरस - बरस में भी न कर सके, तो उस भक्त को दोष लगता है | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसा जीव इस तरह के आचरण से कभी मोक्ष नहीं पा सकता |


    इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय |कहैं कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ||

    किसी के रोडे डालने से न रुक कर, सन्त - दर्शन के लिए अवश्य जाना चहिये | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसे ही सन्त भक्तजन मोक्ष फल को पा सकते हैं |

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  14. खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय |
    कहैं कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ||


    सब कोई कान लगाकर सुन लो | सन्तों लो खाली हाथ मत विदा करो | कबीर जी कहते हैं, तम्हारे घर में जो देने योग्य हो, जरूर भेट करो |


    सुनिये पार जो पाइया, छाजिन भोजन आनि |
    कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ||


    सुनिये ! यदि संसार - सागर से पार पाना चाहते हैं, भोजन - वस्त्र लाकर संतों को समर्पित करने में आगा - पीछा या अहंकार न करिये |


    3

    चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस |
    ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस ||


    जो बगुले के आचरण में चलकर, पुनः हंस कहलाते हैं वे ज्ञान - मोती कैसे चुगेगे ? वे तो कल्पना काल में पड़े हैं |


    बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल |
    बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल ||


    सिंह का वेष पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता जरूर फाड़ खायेगा |


    जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार |
    गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ||


    जो ग्रहस्थ - मनुष्य गृहस्थी धर्म - युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता, साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है उसी को जीवन में लाभ मिलता है |

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  15. शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव |
    क्या रमता क्या बैठता, क्या ग्रह कांदला छाँव ||


    निर्णय शब्द का विचार करे, ज्ञान मार्ग में पांव रखकर सत्पथ में चले, फिर चाहे रमता रहे, चाहे बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे गिरि - कन्दरा में रहे और चाहे पेड की छाया में रहे - उसका कल्याण है |


    गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दूख |
    कहैं कबीर ता दुःख पर वारों, कोटिक सूख ||


    विवेक - वैराग्य - सम्पन्न सतगुरु के समुख रहकर जो उनकी कसौटी और सेवा करने तथा आज्ञा - पालन करने का कष्ट सहता है, उस कष्ट पर करोडों सुख न्योछावर हैं |


    कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट |
    मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट ||


    करोडों - करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी, परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले |


    बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम |
    मद माया और इस्तरी, नहि सन्त के काम ||


    बोली - ठोली, मस्खरी, हँसी, खेल, मद, माया एवं स्त्री संगत - ये संतों को त्यागने योग्य हैं |


    भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान |
    बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ||


    केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |


    बैरागी बिरकात भला, गिरही चित्त उदार |
    दोऊ चूकि खाली पड़े, ताके वार न पार ||


    साधु में विरक्तता और ग्रस्थ में उदार्तापूर्वक सेवा उत्तम है | यदि दोनों अपने - अपने गुणों से चूक गये, तो वे छुछे रह जाते हैं, फिर दोनों का उद्धार नहीं होता |

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  16. घर में रहै तो भक्ति करू, नातरू करू बैराग |
    बैरागी बन्धन करै, ताका बड़ा अभागा ||


    साधु घर में रहे तो गुरु की भक्ति करनी चहिये, अन्येथा घर त्याग कर वेराग्ये करना चहिये | यदि विरक्त पुनः बंधनों का काम करे, तो उसका महान सुर्भाग्य है |


    धारा तो दोनों भली, विरही के बैराग |
    गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ||


    धारा तो दोनों अच्छी हैं, क्या ग्रास्थी क्या वैराग्याश्रम! ग्रस्थ सन्त को गुरु की सेवकाई करनी चहिये और विरक्त को वैराग्यनिष्ट होना चहिये |

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  17. कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय |
    दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताय ||


    गुरु कबीर जी कहते हैं कि प्रतिदिन जाकर संतों की संगत करो | इससे तुम्हारी दुबुद्धि दूर हो जायेगी और सन्त सुबुद्धि बतला देंगे |


    कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय |
    खीर खांड़ भोजन मिलै, साकत संग न जाय ||


    सन्त कबीर जी कहते हैं, सतों की संगत मैं, जौं की भूसी खाना अच्छा है | खीर और मिष्ठान आदि का भोजन मिले, तो भी साकत के संग मैं नहीं जाना चहिये |


    कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय |
    ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय ||


    संतों की संगत कभी निष्फल नहीं होती | मलयगिर की सुगंधी उड़कर लगने से नीम भी चन्दन हो जाता है, फिर उसे कभी कोई नीम नहीं कहता |

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  18. एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध |
    कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ||


    एक पल आधा पल या आधे का भी आधा पल ही संतों की संगत करने से मन के करोडों दोष मिट जाते हैं |


    कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि हो जो सेत |
    मूरख होय न अजला, ज्यों कालम का खेत ||


    कोयला भी उजला हो जाता है जब अच्छी तरह से जलकर उसमे सफेदी आ जाती है | लकिन मुर्ख का सुधरना उसी प्रकार नहीं होता जैसे ऊसर खेत में बीज नहीं उगते |


    ऊँचे कुल की जनमिया, करनी ऊँच न होय |
    कनक कलश मद सों भरा, साधु निन्दा कोय ||


    जैसे किसी का आचरण ऊँचे कुल में जन्म लेने से,ऊँचा नहीं हो जाता | इसी तरह सोने का घड़ा यदि मदिरा से भरा है, तो वह महापुरषों द्वारा निन्दित ही है |


    जीवन जोवत राज मद, अविचल रहै न कोय |
    जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ||


    जीवन, जवानी तथा राज्य का भेद से कोई भी स्थिर नहीं रहते | जिस दिन सत्संग में जाइये, उसी दिन जीवन का फल मिलता है |


    साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन का मोह |
    पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ||


    ज्ञान से पूर्ण बहुतक साखी शब्द सुनकर भी यदि मन का अज्ञान नहीं मिटा, तो समझ लो पारस - पत्थर तक न पहुँचने से, लोहे का लोहा ही रह गया |


    सज्जन सो सज्जन मिले, होवे दो दो बात |
    गदहा सो गदहा मिले, खावे दो दो लात ||


    सज्जन व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति से मिलता है तो दो दो अच्छी बातें होती हैं | लकिन गधा गधा जो मिलते हैं, परस्पर दो दो लात खाते हैं |


    कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय |
    विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ||


    सन्त कबीर जी कहते हैं कि विषधर सर्प बहुत मिलते है, मणिधर सर्प नहीं मिलता | यदि विषधर को मणिधर मिल जाये, तो विष मिटकर अमृत हो जाता है |

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  19. सवेक - स्वामी एक मत, मत में मत मिली जाय |
    चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय ||


    सवेक और स्वामी की पारस्परिक मत मिलकर एक सिद्धांत होना चहिये | चालाकी करने से सच्चे स्वामी नहीं प्रसन्न होते, बल्कि उनके प्रसन्न होने का कारण हार्दिक भक्ति - भाव होता है |


    सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय |
    जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ||


    सन्त कबीर जी समझाते हुए कहते हैं कि अपने सतगुरु के न्यायपूर्ण वचनों का उल्लंघन कर जो सेवक अन्ये ओर जाता है, वह जहाँ जाता है वहाँ उसके लिए काल है |


    आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल |
    शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ||


    आशा तो स्वर्ग की करता है, लकिन तीनों काल में दुर्बुद्धि से रहित नहीं होता | बलि ने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा अनुसार नहीं किया, तो राज्य से वंचित होकर पाताल भेजा गया |


    यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय |
    सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ||


    गुरुजनों को अपना हार्दिक उपदेश सच्चे सवेक को ही देना चहिये | सेवक ऐसा जो सिर पर आरा सहकर भी, दूसरा भाव न लाये |


    शीलवन्त सुरज्ञान मत, अति उदार चित होय |
    लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ||


    शीलवान ही देवता है, उसका विवेक का मत रहता है, उसका चित्त अत्यंत उदार होता है | बुराईयों से लज्जाशील सबसे अत्यंत निष्कपट और कोमल ह्रदय के होते हैं |


    ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत |
    सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत ||


    ज्ञान से पूर्ण, अभिमान से रहित, सबसे हिल मिलकर रहने वाले, सत्येनिष्ठ परमार्थ - प्रेमी एवं प्रेमरहित सबका आदर - भाव करने वाले |

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  20. गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुवंग |
    कहैं कबीर बिसरै नहीं, यह गुरुमुख को अंग ||


    गुरुमुख सेवक व शिष्य को चहिये कि वह सतगुरु के उपदेश की ओर देखता रहे जैसे सर्प मणि की ओर देखता रहता है | गुरु कबीर जी कहते है कभी भूले नहीं येही गुरुमुख का लक्षण है |


    गुरु आज्ञा लै आवहीं, गुरु आज्ञा लै जाय |
    कहैं कबीर सो सन्त प्रिये, बहु विधि अमृत पाय ||


    जो शिष्य गुरु की आज्ञा से आये और गुरु की आज्ञा से जाये| गुरु कबीर जी कहते हैं कि ऐसे शिष्य गुरु - सन्तो को प्रिये होते हैं और अनेक प्रकार से अमृत प्राप्त करते हैं |


    सवेक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय |
    कहैं कबीर सेवा बिना, सवेक कभी न होय ||


    जो सवेक सेवा करता रहता है वही सेवक कहलाता है, गुरु कबीर कहते हैं कि सेवा किये बिना कोई सेवक नहीं हो सकता |


    अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय |
    ज्यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिछाय ||


    जिन्हें स्वरूपस्तिथि (कल्याण)में प्रेम नहीं है, वे विषय - मोह में सुख से सोते हैं परन्तु कल्याण प्रेमी को विषय मोह में नींद नहीं लगती | उनको तो कल्याण की प्राप्ति के लिए वैसी ही छटपटाहट रहती है, जैसे जल से बिछुड़ी मछली तडपते हुए रात बिताती है |

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  21. सुख - दुःख सिर ऊपर सहै, कबहु न छाडै संग |
    रंग न लागै और का, व्यापै सतगुरु रंग ||


    सभी सुख - दुःख अपने सिर ऊपर सह ले, सतगुरु - सन्तो की संगर कभी न छोड़े | किसी ओर विषये या कुसंगति में मन न लगने दे, सतगुरु के चरणों में या उनके ज्ञान - आचरण के प्रेम में ही दुबे रहें |


    कबीर गुरु कै भावते, दुरहि ते दीसन्त |
    तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरंत ||


    गुरु कबीर कहते हैं कि सतगुरु ज्ञान के बिरही के लक्षण दूर ही से दीखते हैं | उनका शरीर कृश एवं मन व्याकुल रहता है, वे जगत में उदास होकर विचरण करते हैं |


    दासातन हरदै बसै, साधुन सो अधिन |
    कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ||


    जिसके ह्रदे में सेवा एवं प्रेम भाव बसता है और सन्तो कि अधीनता लिये रहता है | वह प्रेम - भक्ति में लवलीन पुरुष ही सच्चा दास है |


    दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास |
    अब तो ऐसा होय रहूँ, पाँव तले कि घास ||


    ऐसा दास होना कठिन है कि - "मैं दासो का दास हूँ | अब तो इतना नर्म बन कर के रहूँगा, जैसे पाँव के नीचे की घास " |

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  22. जो सभी विषय - बंधनों को तोड़कर सदैव सत्य स्वरुप ज्ञान की स्तिति में लगा रहे | गुरु कबीर कहते हैं कि उस गुरु - भक्त के सामने काल भी हाथ जोड़कर सिर झुकायेगा |

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  23. भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त |
    ऊँच नीच घर अवतरै, होय सन्त का सन्त ||


    की हुई भक्ति के बीज निष्फल नहीं होते चाहे अनंतो युग बीत जाये | भक्तिमान जीव सन्त का सन्त ही रहता है चाहे वह ऊँच - नीच माने गये किसी भी वर्ण - जाती में जन्म ले |


    भक्ति पदारथ तब मिलै, तब गुरु होय सहाय |
    प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ||


    भक्तिरूपी अमोलक वस्तु तब मिलती है जब यथार्थ सतगुरु मिलें और उनका उपदेश प्राप्त हो | जो प्रेम - प्रीति से पूर्ण भक्ति है, वह पुरुषार्थरुपी पूर्ण भाग्योदय से मिलती है |


    भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़ै भक्त हरषाय |
    और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ||


    भक्ति मुक्ति की सीडी है, इसलिए भक्तजन खुशी - खुशी उसपर चदते हैं | आकर अपने मन में समझो, दूसरा कोई इस भक्ति सीडी पर नहीं चढ़ सकता | (सत्य की खोज ही भक्ति है)


    भक्ति बिन नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय |
    शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ||


    कोई भक्ति को बिना मुक्ति नहीं पा सकता चाहे लाखो लाखो यत्न कर ले | जो गुरु के निर्णय वचनों का प्रेमी होता है, वही सत्संग द्वरा अपनी स्थिति को प्राप्त करता है |

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  24. भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै लाय |
    कहैं कबीर कुछ भेद नहिं, कहाँ रंक कहँ राय ||


    भक्ति तो मैदान में गेंद के समान सार्वजनिक है, जिसे अच्छी लगे, ले जाये | गुरु कबीर जी कहते हैं कि, इसमें धनी - गरीब, ऊँच - नीच का भेदभाव नहीं है |


    कबीर गुरु की भक्ति बिन, अधिक जीवन संसार |
    धुँवा का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ||


    कबीर जी कहते हैं कि बिना गुरु भक्ति संसार में जीना धिक्कार है | यह माया तो धुएं के महल के समान है, इसके खतम होने में समय नहीं लगता |


    जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय |
    नाता तोड़े गुरु बजै, भक्त कहावै सोय ||


    जब तक जाति - भांति का अभिमान है तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता | सब अहंकार को त्याग कर गुरु की सेवा करने से गुरु - भक्त कहला सकता है |


    भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव |
    भक्ति भाव एक रूप हैं, दोऊ एक सुभाव ||


    भाव (प्रेम) बिना भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भाव (प्रेम) नहीं होते | भाव और भक्ति एक ही रूप के दो नाम हैं, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक ही है |


    जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय |
    कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ||


    जाति, कुल और वर्ण का अभिमान मिटाकर एवं मन लगाकर भक्ति करे | यथार्थ सतगुरु के मिलने पर आवागमन का दुःख अवश्य मिटेगा |

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  25. कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय |
    भक्ति करे कोई सुरमा, जाति बरन कुल खोय ||


    कामी, क्रोधी और लालची लोगो से भक्ति नहीं हो सकती | जाति, वर्ण और कुल का मद मिटाकर, भक्ति तो कोई शूरवीर करता है |

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  26. कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस |
    टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ||


    कबीर जी कहते हैं कि इस जवानी कि आशा में पड़कर मद न करो | दस दिनों में फूलो से पलाश लद जाता है, फिर फूल झड़ जाने पर वह उखड़ जाता है, वैसे ही जवानी को समझो |


    कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन कि आस |
    इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ||


    गुरु कबीर जी कहते हैं कि मद न करो चर्ममय हड्डी कि देह का | इक दिन तुम्हारे सिर के छत्र को काल उखाड़ देगा |


    कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान |
    सबही ऊभा पन्थसिर, राव रंक सुल्तान ||


    जीना तो थोड़ा है, और ठाट - बाट बहुत रचता है| राजा रंक महाराजा --- आने जाने का मार्ग सबके सिर पर है, सब बारम्बार जन्म - मरण में नाच रहे हैं |

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  27. कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल |
    दिन दस के व्येवहार में, झूठे रंग न भूले ||


    गुरु कबीर जी कहते हैं कि इस संसार की सभी माया सेमल के फूल के भांति केवल दिखावा है | अतः झूठे रंगों को जीवन के दस दिनों के व्यवहार एवं चहल - पहल में मत भूलो |


    कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि |
    खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ||


    गुरु कबीर जी कहते हैं कि जीव - किसान के सत्संग - भक्तिरूपी खेत को इन्द्रिय - मन एवं कामादिरुपी पशुओं ने एकदम खा लिया | खेत बेचारे का क्या दोष है, जब स्वामी - जीव रक्षा नहीं करता |


    कबीर रस्सी पाँव में, कहँ सोवै सुख चैन |
    साँस नगारा कुंच का, है कोइ राखै फेरी ||


    अपने शासनकाल में ढोल, नगाडा, ताश, शहनाई तथा भेरी भले बजवा लो | अन्त में यहाँ से अवश्य चलना पड़ेगा, क्या कोई घुमाकर रखने वाला है |


    आज काल के बीच में, जंगल होगा वास |
    ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ||


    आज - कल के बीच में यह शहर जंगल में जला या गाड़ दिया जायेगा | फिर इसके ऊपर ऊपर हल चलेंगे और पशु घास चरेंगे |


    रात गँवाई सोयेकर, दिवस गँवाये खाये |
    हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय ||


    मनुष्य ने रात गवाई सो कर और दिन गवाया खा कर, हीरे से भी अनमोल मनुष्य योनी थी परन्तु विषयरुपी कौड़ी के बदले में जा रहा है |


    ऊँचा महल चुनाइया, सुबरन कली दुलाय |
    वे मंदिर खाली पड़े रहै मसाना जाय ||


    स्वर्णमय बेलबूटे ढल्वाकर, ऊँचा मंदिर चुनवाया | वे मंदिर भी एक दिन खाली पड़ गये, और मंदिर बनवाने वाले श्मशान में जा बसे |


    कहा चुनावै भेड़िया, चूना माटी लाय |
    मीच सुनेगी पापिनी, दौरी के लेगी आप ||


    चूना मिट्ठी मँगवाकर कहाँ मंदिर चुनवा रहा है ? पापिनी मृत्यु सुनेगी, तो आकर धर - दबोचेगी |

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  28. Shabad Bhakt Kabir Ji in Hindi
    शब्द भक्त कबीर जी
    1. जननी जानत सुतु बडा होतु है

    जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥
    मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥
    ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥
    कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥
    कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥
    रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
    जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥
    भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥
    उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
    गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥
    इतु संगति नाही मरणा ॥
    हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥91॥

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  29. 2. नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु

    नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
    बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
    किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
    जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
    मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
    मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
    बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
    खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
    कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
    राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥324॥

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  30. 3. किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा

    किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
    जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
    रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
    चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
    परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
    परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
    करम करत बधे अहमेव ॥
    मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
    कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
    भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥324॥
    4. गरभ वास महि कुलु नही जाती

    गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
    ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
    कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
    बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
    जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
    तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
    तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
    हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
    कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
    सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥324॥

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  31. 5. अवर मूए किआ सोगु करीजै

    अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
    तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
    मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
    अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
    इआ देही परमल महकंदा ॥
    ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
    कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
    टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
    कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
    ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥325॥
    6. जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी

    जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
    बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
    जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
    जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
    मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
    बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
    कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
    नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥328॥
    7. जो जन लेहि खसम का नाउ

    जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
    तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
    सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
    सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
    जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
    तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
    जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
    सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥328॥
    8. ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे

    ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे ॥
    किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
    कहु रे पंडित अम्बरु का सिउ लागा ॥
    बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥
    सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥
    सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥
    कहु कबीर जानैगा सोइ ॥
    हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥329॥
    9. बेद की पुत्री सिम्रिति भाई

    बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥
    सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
    आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥
    मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥
    कटी न कटै तूटि नह जाई ॥
    सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
    हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥
    कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥329॥

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  32. 10. देइ मुहार लगामु पहिरावउ

    देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥
    सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥
    अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥
    सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
    चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥
    हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥
    कहत कबीर भले असवारा ॥
    बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥329॥
    11. आपे पावकु आपे पवना

    आपे पावकु आपे पवना ॥
    जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥
    राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥
    राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
    का को जरै काहि होइ हानि ॥
    नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥
    कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥
    होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥329॥

    12. जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग

    जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
    सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
    इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
    राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
    कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
    इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥330॥
    13. रे जीअ निलज लाज तोहि नाही

    रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
    हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
    जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
    सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
    सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
    सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
    कवला चरन सरन है जा के ॥
    कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
    सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
    सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
    कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
    जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥330॥
    14. कउनु को पूतु पिता को का को

    कउनु को पूतु पिता को का को ॥
    कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
    हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥
    हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥
    कउन को पुरखु कउन की नारी ॥
    इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
    कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥
    गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥330॥
    15. जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई

    जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥
    जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
    कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥
    ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ ॥
    नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥
    ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
    फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥
    कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥331॥

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  33. 16. झगरा एकु निबेरहु राम

    झगरा एकु निबेरहु राम ॥
    जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ ॥
    इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥
    रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
    ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥
    बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
    कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥
    तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥331॥
    17. देखौ भाई ग्यान की आई आंधी

    देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥
    सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ ॥
    दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥
    तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
    आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥
    कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥331॥
    18. हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि

    हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥
    बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
    ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥
    जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
    आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥
    तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
    बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥
    आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
    छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥
    ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
    आपु गए अउरन हू खोवहि ॥
    आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
    अवरन हसत आप हहि कांने ॥
    तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥332॥
    19. जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही

    जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
    पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
    मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
    कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
    माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
    ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
    सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
    राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
    देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
    कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥332॥

    20. राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे

    राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
    ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
    दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
    सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
    जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
    इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
    गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
    चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
    कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
    उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥337॥

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  34. 21. सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु

    सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥
    होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
    रमईआ गुन गाईऐ ॥
    जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
    किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
    जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
    स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥
    जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
    कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥
    सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥337॥
    22. रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु

    रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥
    बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
    राम रसु पीआ रे ॥
    जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥
    अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥
    जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
    जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥
    कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥337॥
    23. मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे

    मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥
    सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
    डगमग छाडि रे मन बउरा ॥
    अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥
    काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥
    कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥338॥
    24. लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे

    लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥
    भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
    तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥
    धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ ॥
    संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥
    कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥338॥
    25. निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ

    निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥
    निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
    निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
    निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥
    नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥
    रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥
    हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
    निंदा करै सु हमरा मीतु ॥
    निंदक माहि हमारा चीतु ॥
    निंदकु सो जो निंदा होरै ॥
    हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
    निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥
    निंदा हमरा करै उधारु ॥
    जन कबीर कउ निंदा सारु ॥
    निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥339॥
    27. हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई

    हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
    दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
    काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
    पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
    सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
    जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
    सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
    अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
    छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
    कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥477॥
    28. जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥

    जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
    तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥
    रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥
    तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ ॥
    का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥
    घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥
    देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥
    लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥
    कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥
    इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥478॥

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  35. 29. सुतु अपराध करत है जेते

    सुतु अपराध करत है जेते ॥
    जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥
    रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥
    काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥
    जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥
    ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥
    चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥
    नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥
    देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥
    सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥478॥
    30. हज हमारी गोमती तीर

    हज हमारी गोमती तीर ॥
    जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥
    वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥
    हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ ॥
    नारद सारद करहि खवासी ॥
    पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥
    कंठे माला जिहवा रामु ॥
    सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥
    कहत कबीर राम गुन गावउ ॥
    हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥478॥
    31. पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ

    पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
    जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
    भूली मालनी है एउ ॥
    सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥
    ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥
    तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥
    पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥
    जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥
    भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥
    भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥
    मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥
    कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥479॥
    32. बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ

    बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥
    तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥
    मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥
    साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ ॥
    सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥
    आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥
    चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥
    जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥
    हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥
    गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥
    कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥
    आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥479॥

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  36. 33. काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा

    काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥
    काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥
    अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥
    सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ ॥
    कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥
    काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥
    सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥
    जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥
    हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥
    जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥
    कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥
    चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥479॥
    34. हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै

    हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥
    अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥
    काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥
    रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
    सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥
    निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥
    पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥
    खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥
    आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥
    माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥
    कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥480॥
    35. गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना

    गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥
    पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥
    बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥
    सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ ॥
    बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥
    साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥
    स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥
    चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥
    थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥
    थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥
    मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥
    कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥480॥
    36. सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ

    सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥
    जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥
    मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥
    जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ ॥
    स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥
    जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥
    स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥
    स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥
    इह स्रपनी ता की कीती होई ॥
    बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥
    इह बसती ता बसत सरीरा ॥
    गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥480॥
    37. कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए

    कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥
    कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥
    राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥
    साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
    कऊआ कहा कपूर चराए ॥
    कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥
    सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥
    पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥
    साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥
    जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥
    अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥
    कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥481॥

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  37. 38. लंका सा कोटु समुंद सी खाई

    लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥
    तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥
    किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥
    देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ ॥
    इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥
    तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥
    चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥
    बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥
    गुरमति रामै नामि बसाई ॥
    असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥
    कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥
    राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥481॥
    39. हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे

    हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
    तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
    मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
    जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
    हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
    कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
    तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
    तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥482॥
    40. रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै

    रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥
    आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥
    काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥
    खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥
    साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥
    पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥
    अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥
    हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥483॥

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  38. 41. करवतु भला न करवट तेरी

    करवतु भला न करवट तेरी ॥
    लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥
    हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥
    करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ ॥
    जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥
    पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥
    हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥
    तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥
    कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥
    अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥484॥
    42. कोरी को काहू मरमु न जानां

    कोरी को काहू मरमु न जानां ॥
    सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ ॥
    जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥
    तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥
    धरनि अकास की करगह बनाई ॥
    चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥
    पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥
    जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥
    कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥
    सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥484॥
    43. अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां

    अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥
    लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥
    पूजहु रामु एकु ही देवा ॥
    साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ ॥
    जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥
    जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥
    मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥
    हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥
    दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥
    कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥484॥
    44. चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै

    चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥
    ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥
    हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥
    फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ ॥
    सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥
    जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥
    दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥
    रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥
    भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥
    कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥524॥
    45. मुसि मुसि रोवै कबीर की माई

    मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥
    ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥
    तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥
    हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ ॥
    जब लगु तागा बाहउ बेही ॥
    तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥
    ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥
    हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥
    कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥
    हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥524॥

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  39. 46. बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई

    बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥
    ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
    मन रे संसारु अंध गहेरा ॥
    चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥
    कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥
    जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥
    दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥
    बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥
    राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥
    हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥654॥
    47. जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई

    जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥
    काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥
    काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥
    जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥
    जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥
    मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥
    देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥
    मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥
    कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥
    झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥654॥
    48. बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा

    बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥
    काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥
    मन रे सरिओ न एकै काजा ॥
    भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥
    बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥
    नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥
    भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥
    राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥
    परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥
    कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥654॥
    49. दुइ दुइ लोचन पेखा

    दुइ दुइ लोचन पेखा ॥
    हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥
    नैन रहे रंगु लाई ॥
    अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥
    हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥
    जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥
    बाजीगर डंक बजाई ॥
    सभ खलक तमासे आई ॥
    बाजीगर स्वांगु सकेला ॥
    अपने रंग रवै अकेला ॥२॥
    कथनी कहि भरमु न जाई ॥
    सभ कथि कथि रही लुकाई ॥
    जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥
    ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥
    गुर किंचत किरपा कीनी ॥
    सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥
    कहि कबीर रंगि राता ॥
    मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥655॥
    50. जा के निगम दूध के ठाटा

    जा के निगम दूध के ठाटा ॥
    समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥
    ता की होहु बिलोवनहारी ॥
    किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥
    चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥
    जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
    तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥
    तू घर घर रमईऐ फेरी ॥
    तू अजहु न चेतसि चेरी ॥
    तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥
    प्रभ करन करावनहारी ॥
    किआ चेरी हाथ बिचारी ॥
    सोई सोई जागी ॥
    जितु लाई तितु लागी ॥३॥
    चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥
    जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥
    सु रसु कबीरै जानिआ ॥
    मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥655॥

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  40. 51. जिह बाझु न जीआ जाई

    जिह बाझु न जीआ जाई ॥
    जउ मिलै त घाल अघाई ॥
    सद जीवनु भलो कहांही ॥
    मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥
    अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥
    निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥
    घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥
    बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥
    पूति पिता इकु जाइआ ॥
    बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥
    जाचक जन दाता पाइआ ॥
    सो दीआ न जाई खाइआ ॥
    छोडिआ जाइ न मूका ॥
    अउरन पहि जाना चूका ॥३॥
    जो जीवन मरना जानै ॥
    सो पंच सैल सुख मानै ॥
    कबीरै सो धनु पाइआ ॥
    हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥655॥
    52. किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ

    किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥
    किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥
    पड़े सुने किआ होई ॥
    जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥
    हरि का नामु न जपसि गवारा ॥
    किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥
    अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥
    बसतु अगोचर पाई ॥
    घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥
    कहि कबीर अब जानिआ ॥
    जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥
    मन माने लोगु न पतीजै ॥
    न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥655॥
    53. ह्रिदै कपटु मुख गिआनी

    ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥
    झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥
    कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥
    जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ ॥
    लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥
    कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥
    कहि कबीर बीचारी ॥
    भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥656॥
    54. बहु परपंच करि पर धनु लिआवै

    बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥
    सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥
    मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥
    अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
    छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥
    तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥
    कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥
    हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥656॥
    55. संतहु मन पवनै सुखु बनिआ

    संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥
    किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥
    गुरि दिखलाई मोरी ॥
    जितु मिरग पड़त है चोरी ॥
    मूंदि लीए दरवाजे ॥
    बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥
    कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥
    जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥
    कहु कबीर जन जानिआ ॥
    जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥656॥

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  41. 56. भूखे भगति न कीजै

    भूखे भगति न कीजै ॥
    यह माला अपनी लीजै ॥
    हउ मांगउ संतन रेना ॥
    मै नाही किसी का देना ॥१॥
    माधो कैसी बनै तुम संगे ॥
    आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ ॥
    दुइ सेर मांगउ चूना ॥
    पाउ घीउ संगि लूना ॥
    अध सेरु मांगउ दाले ॥
    मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥
    खाट मांगउ चउपाई ॥
    सिरहाना अवर तुलाई ॥
    ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥
    तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥
    मै नाही कीता लबो ॥
    इकु नाउ तेरा मै फबो ॥
    कहि कबीर मनु मानिआ ॥
    मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥656॥
    57. सनक सनंद महेस समानां

    सनक सनंद महेस समानां ॥
    सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
    संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ ॥
    हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥
    सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
    चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥
    कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
    कहि कबीर सो भरमै नाही ॥
    पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥691॥
    58. दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै

    दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥
    कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
    सो दिनु आवन लागा ॥
    मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥
    जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥
    लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
    कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥
    केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥692॥
    59. जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो

    जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥
    जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
    हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥
    जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥
    कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥
    किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥692॥
    60. इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो

    इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥
    ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
    किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥
    राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥
    सोभा राज बिभै बडिआई ॥
    अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
    पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥
    इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
    कहत कबीर अवर नही कामा ॥
    हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥692॥

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  42. 61. राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई

    राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥
    राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥
    बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥
    इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
    अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥
    तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
    सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥
    राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
    तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥
    गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥692॥
    62. बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ

    बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥
    टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
    बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥
    इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
    दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥
    हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
    असमान ‍िम्याने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥
    करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
    अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥
    कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥727॥
    63. अमलु सिरानो लेखा देना

    अमलु सिरानो लेखा देना ॥
    आए कठिन दूत जम लेना ॥
    किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥
    चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥
    चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥
    हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
    करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥
    लेउ निबेरि आजु की राती ॥
    किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥
    सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥
    साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥
    धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥
    ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥
    जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥
    जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥
    मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥
    कहु कबीर तेई नर भूले ॥
    खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥792॥
    64. थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ

    थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥
    जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥
    बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥
    बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
    तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥
    जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥
    जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥
    हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥
    जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥
    कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥793॥
    65. ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे

    ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥
    सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥
    बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥
    मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥
    धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥
    राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥
    हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥
    आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥
    पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥
    कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥855॥
    66. बिदिआ न परउ बादु नही जानउ

    बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥
    हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥
    मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥
    मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥
    आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥
    सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥
    मै बिगरे अपनी मति खोई ॥
    मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥
    सो बउरा जो आपु न पछानै ॥
    आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥
    अबहि न माता सु कबहु न माता ॥
    कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥855॥

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  43. 67. ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा

    ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥
    अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥
    किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥
    राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥
    बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥
    अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥
    जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥
    इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥
    कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
    तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥855॥
    68. नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ

    नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥
    ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥
    हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥
    जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
    सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥
    सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥
    सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥
    संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥
    घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥
    कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥856॥
    69. संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ

    संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥
    मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥
    बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥
    जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
    संतन सिउ बोले उपकारी ॥
    मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥
    बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥
    बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥
    कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥
    भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥870॥
    70. नरू मरै नरु कामि न आवै

    नरू मरै नरु कामि न आवै ॥
    पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥
    अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥
    मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ ॥
    हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥
    केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥
    कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥
    जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥870॥
    71. भुजा बांधि भिला करि डारिओ

    भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥
    हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
    हसति भागि कै चीसा मारै ॥
    इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
    आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥
    काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
    रे महावत तुझु डारउ काटि ॥
    इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
    हसति न तोरै धरै धिआनु ॥
    वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
    किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥
    बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
    कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥
    बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
    तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥
    मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
    कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
    चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥870॥

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